प्रभु यीशु मसीह ने अपने चेलों को प्रार्थना करना सिखाया, और हम बाइबिल मे आगे देखते है की यीशु मसीह स्वयं भी प्रार्थना का जीवन जीते थे!
और स्वयं के पकड़वाये जाने से पहले भी वह बार-बार अपने चेलों को प्रार्थना करने के लिए आग्रह कर रहे थे और यहाँ तक की स्वयं के पकड़वाये जाने तक प्रार्थना मे लोलिन थे,
और बाइबिल के सभी लोग जिन पर परमेश्वर का आत्मा या अनुग्रह रहा है वे सब प्रार्थना जीवन को जीने वाले व्यक्ति थे
तो प्रार्थना इतनी महत्वपूर्ण क्यों है और प्रार्थना का अर्थ क्या है, आइये जानने की कोशिश करते है,
प्रार्थना की परिभाषा :-
प्रार्थना यह शब्द "प्र" और "अर्थ" से मिलकर बना है! जिसका अर्थ होता है पूर्ण तलीनता के साथ निवेदन करना ! दूसरे शब्दों मे प्रार्थना से तात्पर्य है ईश्वर से किसी वस्तु के लिए तीव्र उत्कंठा से किया गया निवेदन!
वह मन में व्याकुल होकर यहोवा से प्रार्थना करने और बिलख-बिलख कर रोने लगी (1शमूएल 1:10)
प्रार्थना मे आदर, प्रेम, आवेदन, विश्वास, समाहित है! प्रार्थना के माध्यम से भक्त अपनी असमर्थता को स्वीकार करते है! और सिर्फ ईश्वर को सर्वोपरि कर्ता मानते है, और प्रार्थना मे ईश्वर को कर्ता मानने से तात्पर्य है! की हमारा अंतर्मन यह स्वीकार कर लेता है! की ईश्वर हमारी सहायता कर रहा है और कार्य पूर्ति भी करवा रहे है!
प्रार्थना हमारे जीवन को तीन स्तर पर प्रभावित करती है:-
1.कर्म
2.विचार
3.भाव
1.कर्म :-
ज़ब हम कर्म की शुरुआत प्रार्थना से करते है तो परमेश्वर की योजना को पूरा करते है और गलतियां कम होती है तथा हमारे कर्म शुद्ध होते है
2.विचार :-
जब तक मन सक्रिय रहता है, तब तक विचारों की श्रृंखला बनी रहती है ! व्यर्थ के विचार ऊर्जा का अपव्यय करते है! इसे रोकने के लिए प्रार्थना बड़ी उपयोगी है, प्रार्थना चिंता को घटाती है,
3.भाव:-
भावपूर्ण रूप से की गयी प्रार्थना साधक मे चिंतन प्रक्रिया को आरम्भ करती है !
प्रार्थना के प्रकार :-
मसीह जीवन मे प्रार्थना के दो प्रकार हो सकते है लेकिन यह भी विवाद का विषय है! इस विवाद मे ना फसते हुवे हम अपने कार्य को आगे बड़ाते है,
1.सामन्य प्रार्थना :-
बार-बार प्रार्थना करने पर हमारे भाव जाग्रत होते है! और हमारी प्रार्थना ईश्वर के चरणो मे पहुँचती है!
ज़ब बार-बार प्रार्थना करने पर भाव जाग्रत होने लग जाते है, तो परमेश्वर और साधक(भक्त ) मे संबन्ध स्थापित होने लगता है, और धीरे धीरे सामन्य प्रार्थना मे वचन के द्वारा ईश्वरीय सहायता मांगते है और परमेश्वर आपकी प्रार्थना का उत्तर देते हुए एक सहायक भेजते है, अर्थात पवित्र आत्मा जिसके प्रतिज्ञा पवित्र शास्त्र मे की गयी है,
परन्तु जब वह सहायक आएगा, जिसे मैं तुम्हारे पास पिता की ओर से भेजूँगा, अर्थात् सत्य का आत्मा जो पिता की ओर से निकलता है, तो वह मेरी गवाही देगा।
(यूहन्ना 15:26)
2.पवित्र आत्मा मे प्रार्थना :-
आप सामान्य प्रार्थना के साथ-साथ आत्मा मे भी प्रार्थना कर सकते है, यह बहुत महत्वपूर्ण है इसे अन्य भाषा या गर्भ की भाषा भी कहा जाता है!
मैं आत्मा से भी प्रार्थना करूँगा, और बुद्धि से भी प्रार्थना करूँगा; मैं आत्मा से गाऊँगा, और बुद्धि से भी गाऊँगा। (1कुरि.14:15)
अब तक आप यह समझ गए होंगे की प्रार्थना कितनी महत्वपूर्ण है! आइये प्रार्थना करने के कुछ लाभों को जान लेते है!
1.पापों के लिए क्षमा प्राप्ति :-
यह बात तो आप सभी भली भाती जानते है की पापों की माफ़ी सिर्फ यीशु मसीह को उधारकर्ता ग्रहण करने और प्रार्थना के द्वारा मिल सकती है और कोई मार्ग नहीं है!
2.अहंकार का क्षीण होना :-
जब आप पापो की माफ़ी मांगते है, तो परमेश्वर केवल हमारे पापो को माफ़ ही नहीं करता है परन्तु आपके अवगुणो को भी दूर करता है! जैसे जैसे आप प्रार्थना करते है वैसे ही आप का अहंकार धीरे-धीरे कम होने लगता है, और आप नम्र और भाउक बनते जाते है!
3.शत्रु से रक्षा :-
एक मसीह विश्वासी अच्छे से जानता है की उसका शत्रु कौन है? और कितना होशियार है? आपकी प्रार्थना आपको शत्रु (शैतान ) की हर चाल से रक्षा करती है यह आपका सुरक्षा कवच है ! बिना प्रार्थना के मसीह जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती,
4.आस्था मे वृद्धि :-
जैसे की अपने पढ़ा प्रार्थना मे आप परमेश्वर के साथ भवनात्मक रिस्ता बनाते है! और जैसे-जैसे आपका भावनात्मक रिस्ता बनता है, वैसे-वैसे ही परमेश्वर स्वयं को आपके ऊपर प्रगट करना शुरू करता है और आप भेद की बाते जानने लगते हो और परमेश्वर पर निर्भर होते जाते हो जो आपकी आस्था मे वृद्धि करता है!
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